चोटी की पकड़–82

खजांची अभी नहीं आया। आएगा, कुछ ठहरकर चलेगी, राह पर मिलेगी। पूछना और काम लेना है। 


छिपी भी है, देखती भी है। यहाँ से सिंहद्वार और वह रास्ता नहीं देख पड़ता। अनुमान है, वक्त पर लौट पड़ेगी। सजग है-खजांची लौट न जाए।

खजांची बेचैन है। घटना घट चुकी। बीजक जमादार के हाथ पड़ा। परदा फ़ाश हुआ। बँध गए। 

सरकारी आदमी की शरण ली। काम कर रखने की ठानी। एजाज से बातचीत करानी है। 

राज लेना है। निचले वर्ग की औरत से मदद चाहिए। मुन्ना आँख के सामने आई। सहारा मिला। 

आखिरी हिम्मत बाँधी कि इस जाल से छुट जाएँ। सरकार की शिरकत के ख्याल ने पाया जमाया।

जटाशंकर से मिलना आवश्यक है, खजांची यथासमय आए। खजाने की तिजोरियाँ खोलीं, बीजक देखे। जटाशंकर भी खड़े हुए देखते रहे। चपरासी के संदूक बंद करने पर खजांची से जटाशंकर ने पूछा, "ठीक है?"

"ठीक है।" गंभीर अप्रसन्नता से ख़ज़ांची ने कहा। जटाशंकर सिपाही की गवाही तैयार कर रहे हैं। दोस्ती रही लेकिन बीजक छिन गया है। बस नहीं। फँसे हैं। बचकर चले।

जमादार काम ले गए, खजांची से उतरते-उतरते न सहा गया। कहा, "जमादार, क्या यह गवाही अलग से पेश होगी?"

सिपाही समझ गया। पूछा, "कैसी गवाही?" बातें इधर-उधर सुन चुका था। खजाने की बातचीत ने जड़ जमा दी। खजांची के सामने सिपाही ने कहा, "मैं समझ गया।"

तेज पडकर खजांची ने कहा, "नहीं सुना? हमने कहा, ठीक है।"

"बादवाली बातें भी?" सिपाही ने फिर सवाल किया।

जमादार ने कहा, "हम सधे होते तो पूछते क्यों? सवाल मत करो।"

मगर सिपाही का भूत न उतरा, शंका-समाधान न हुआ। छुटकारा भी न था।

खजांची ने निकलते हुए धीरज दिया, सब लोग एक ही राह से गुजरेंगे। जहाँ आपकी गवाही होगी, वहाँ हम भी होंगे।

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